महर्षि मेँहीँ संक्षिप्त जीवनी
प्रभु प्रेमियों ! महर्षि मेँहीँ के संक्षिप्त जीवनी शीर्षक के अंतर्गत है हमलोग सदगुरु महाराज से संबंधित निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर को इस पोस्ट में पढ़ेंगे-- 1. मेँहीँ बाबा का जन्मदिन कब है? 2.महर्षि मेँहीँ कौन थे? इनके बचपन का नाम क्या था? 3.परमहंसजी महाराज की जीवनी क्या है? 4.महर्षि जी के सफल जीवन के प्रेरणा स्रोत क्या है? 5. मनुष्य शरीर धारण करके क्या करना चाहिए? 6. ब्रह्मचारी रहकर ध्यान भजन करने की प्रेरणा कैसे हुई? 7. सच्चे सद्गुरु का महत्व और उसकी खोज। 8. आदर्श गुरु भक्ति करने का फल। 9. सतगुरु महर्षि मेँहीँ और कुप्पाघाट आश्रम 10. संतों की साधना का महत्व । 11. आत्म कल्याण के अधिकारी कौन है? 12. संतमत के प्रचार प्रसार का आधार क्या है? 13. सद्गुरु महर्षि मेँहीँ रचित सद्ग्रन्थ। 14. सद्गुरु महर्षि मेँहीँ रचित सद्ग्रन्थो का संक्षिप्त विवरण 15. संतमत सत्संग मंदिर का महत्व एवं निर्माण । 17. संतमत सत्संग का प्रचार-प्रसार एवं अधिवेशन। 18. सद्गुरु महर्षि मेँहीँ का देश प्रेम। 19. देश रक्षार्थ आत्मबलिदान की तत्परता । इत्यादि बातें ।
 | ध्यान मुद्रा में सद्गुरु महर्षि मेँहीँ |
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महर्षिजी का परिचय (श्रीगीता- योग-प्रकाश पुस्तक से)
1. मेँहीँ बाबा का जन्मदिन कब है?
श्रीगीता-योग-प्रकाश' के लेखक महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज हैं। इस जगतीतल पर आपका अवतरण
 | संतमत प्रचारक गुरुदेव |
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वि० सं०, १
९४१, वैशाख शुक्ल चतुर्दशी तदनुसार सन् १८८४ ई० को बिहार प्रान्त स्थित सहरसा मण्डलान्तर्गत ( अब मधेपुरा जिला) उदाकिशनगंज थाने के खोखशी श्याम ग्राम में अपने मातामह के यहाँ हुआ था। आपका पितृगृह पुरैनियाँ मण्डलान्तर्गत ग्राम सिकलीगढ़ धरहरा में है। आपके पूज्य पिता कायस्थ कुलभूषण स्व्गींय बाबू बबुजन लाल दासजी थे।
2.महर्षि मेँहीँ कौन थे? इनके बचपन का नाम क्या था?
आपका जन्मराशि पर का नाम
श्रीरामानुग्रह लाल दासजी था।
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ह्वीलचेयर पर गुरु महाराज |
कहावत है-'होनहार बिरवान के होत चीकने पात।' आपमें जन्मजात योगी के चिह्न विद्यमान थे। शैशवावस्था से ही आपके सिर में सात जटाएँ थीं। वे प्रतिदिन कंघी से सुलझा दिए जाने पर भी पुनः प्रातःकाल अनायास सात जटाएँ ही बन आती थीं। चार वर्ष की अवस्था में ही आपकी पूज्या माताजी इस असार संसार को त्यागकर परलोक सिधार गई।
3. परमहंसजी महाराज की जीवनी क्या है?
पाँच वर्ष की अवस्था में कुल-पुरोहित-द्वारा
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गुरदेव के विभिन्न स्वरूप |
आपका विधिवत् मुण्डन-संस्कार सम्पन्न होने के पश्चात् आपकी प्राथमिक शिक्षा का शुभारम्भ अपने ग्राम में ही हुआ। आपकी शिक्षा का आरम्भ कैथी लिपि में हुआ, फिर भी प्रारम्भिक शिक्षा समाप्त करते-करते आपने दिव्य प्रतिभा के कारण अल्प काल में ही नागरी लिपि भी सीख ली और आप ग्यारह वर्ष की अवस्था में पुरैनियाँ जिला स्कूल में विद्याध्यन के लिए भत्ती कराए गए। वहाँ विद्याध्ययन-काल में आपकी अभिरुचि आद्यात्मिक ग्रन्थों के अध्ययन एवं पूजा-ध्यान की ओर अधिकाधिक बढ़ती गई।
4.महर्षि जी के सफल जीवन के प्रेरणा स्रोत क्या है?
सन् १९०४ ई० की ४ जुलाई को आप प्रवेशिका परीक्षा दे रहे थे। उस दिन अँग्रेजी की परीक्षा थी। प्रश्नपत्र का प्रथम प्रश्न था-
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जीवन निर्माण का साधना |
'
Quote from memory thepoem 'Builders' and explain it in your own English' अर्थात् 'निर्माणकता' शीर्षक पद्य को अपने स्मरण से लिखकर उसकी व्याख्या करो। आपने 'निम्माणकर्ता' शीर्षक कविता का प्रथम छन्द लिखकर उसकी विशद व्याख्या की। उसका समासरूप निम्नलिखित है- '
For the structure that we raise; Time is with material's field, Our to-days and yesterdays; Are the blocks with which we build.' 'हमलोगों का जीवन-मन्दिर अपने प्रतिदिन के सुकर्म वा कुकर्म रूपी ईटों से बनता वा बिगड़ता है। जो जैसा कर्म करता है, उसका वैसा ही जीवन बनता है। इसलिए हमलोगों को भगवद्-भजन-रूपी सर्वश्रेष्ठ ईटों से अपने जीवन-मन्दिर की दिवाल का निर्माण करते जाना चाहिए। ""
समय की सदुपयोगिता सत्कर्म में है और ईश्वर - भक्ति वा भजन से श्रेष्ठतम और कोई भी सत्कर्म नहीं है। इस भाँति अध्यात्मपूर्ण हृदयोद्गारों को अभिव्यक्त करते हुए अन्त में आपने लिखा-
5. मनुष्य शरीर धारण करके क्या करना चाहिए?
'देह धरे कर यहि फल माई। मजिय राम सब काम बिहाई।।'
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भक्तों के साथ गुरुदेव |
यह उत्तर लिखते-लिखते आप भाव-विहल हो अपने संवेग का संवरण न कर सके और आपने निरीक्षक ( Invigilator ) से कहा-'May I g0 out, Sir ?'-महाशय! क्या मैं बाहर जा सकता हूँ? संरक्षक महोदय आपके मनोभाव को परख न सके और उन्होंने आपको बाहर जाने की अनुमति दे दी। बस क्या था? जैसे नदी का बाँध टूटने पर जलधारा अबाध रूप से अग्रसर होती है, ैसे ही आप परीक्षा-निरीक्षक महोदय का आदेश पा तीव्र और उत्कट आध्यात्मिक अन्तःप्रेरणा से प्रेरित हो विद्यालय का परित्याग कर साधू -सन्तों की खोज में निकल पड़े। सन्तों के दर्शन सहज नहीं। पहाड़ों और अरण्यों में भटकने पर अपार कष्ट तो हुए, किन्तु सन्तों के दर्शन नहीं हुए।
6. ब्रह्मचारी रहकर ध्यान भजन करने की प्रेरणा कैसे हुई?
आपने गृहस्थ-जीवन से सुदूर - ब्रह्मचर्य- जीवन को ही पसन्द किया,
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योगसिद्ध सद्गुरुदेव |
अतएव आपने विवाह नहीं किया। सत्रह वर्ष की अवस्था में आप दरियापंथ के साधु बाबा रामानन्द स्वामी से दीक्षित होकर मानस जप, मानस ध्यान और खुले नेत्र से त्राटक का अभ्यास करने लगे। निष्ठापूर्वक वर्षों आपने इसकी साधना की। फिर भी अध्यात्म-ज्ञान की पूर्णता की पिपासा बनी रही। जब उन गुरू महाराज से आपकी जिज्ञासाओं का समाधान नहीं हुआ, तब आप किसी दूसरे पहुँचे हुए साधु - सन्त की खोज करने लगे।
7. सच्चे सद्गुरु का महत्व और उसकी खोज
वर्षों की खोज-ढूँढ़ के पश्चात् सन् १९०९ ई० में आपका सन्तमत -साधना से परिचय हुआ और उत्तर
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सतत सक्रिय गुरुदेव |
प्रदेशान्तर्गत मुरादाबाद-निवासी परम संत बाबा देवी साहब के शिष्य स्वर्गीय बाबू राजेन्द्रनाथ सिंहजी महोदय ( मायागंज, भागलपुर, बिहार ) से आपने दूष्टि -साधन की युक्ति ( भेद) प्राप्त की। उसी वर्ष भागलपुर में ही आपको परम सन्त बाबा देवी साहबजी का दिव्य दर्शन और पूर्ण समाधानकारी प्रवचन सुन्ने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ। इस शुभ दर्शन और प्रवचन से आपको शान्ति और तृप्ति का बोध हुआ। तत्पश्चात् आपको सद्गुरु के साथ सत्संग और उनकी सेवा करने के सुअवसर भी प्राप्त होते रहे।
8. आदर्श गुरु भक्ति करने का फल
आप प्रति वर्ष बिहार से मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश ) जाते और
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गुरु आज्ञा पालन करते गुरुदेव |
उनकी यथायोग्य सेवा करते। आपकी सेवा- भक्ति से प्रसन्न होकर सन् १९१४ ईo में बाबा देवी साहब ने आपको नादानुसन्धान-सुरतशब्दयोग की साधना भी बतला दी और कहा- 'अभी दस वर्ष पर्यन्त तुम मात्र दृष्टियोग का अभ्यास करो। मैंने बतीस वर्ष तक केवल द्ष्टियोग का अभ्यास किया है। दृष्टियोग-आभ्यास में मजबूत हूए बिना शब्द-साधना करना ठीक नहीं है। यह अभी तुमको इसलिए बतला दिया कि यह तुम्हारी जानकारी में रहे, परन्तु इसका अभ्यास अभी नहीं करना। इन साधनाओं का नित्य नियमित अभ्यास आप वर्षों एकान्तवासी बन गुफा में बैठकर बड़ी निष्ठा से करते रहे हैं। सन् १९३३-३४ ई० में अठारह महीने तक भागलपुर के कुष्पाघाट की गंगा पुलिनस्थ शान्त सुपावन गुहा में बैठकर आपने दृढ़ ध्यानाभ्यास किया। इसी पुण्य स्थल ने आज महर्षि मेंहीं आश्रम (कुष्पाघाट, भागलपुर ) के नाम से तीर्थत्व प्राप्त कर लिया है, जहाँ सहस्त्ं नर- नारी एकत्र होकर योग, ज्ञान और भक्ति की मन्दाकिनी में अवगाहन कर कल्याण-पथ के पथिक बन अपना मानव-जीवन कृतार्थ करते हैं।
9. सतगुरु महर्षि मेँहीँ और कुप्पाघाट आश्रम
सन् १९५७ ई० में अपकी एक प्रचछन्न शक्ति-भरी वाणी आविभूत हुई- '
लोगों को चाहिए कि कुष्पाघाट में भी  |
आश्रम में सत्संग सुनते गुरुदेव |
एक स्मारक बनवा दें।' जिसने सन् १९६० ई० से क्रियात्मक रूप धारण किया और आज वह वाणी अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग के केन्द्र-रूप में परिणत हो 'महर्षि मेंहीं आश्रम' के नाम से प्रख्यात हो रही है। प्रथम यहाँ की गुफा पर ताड़-पत्ते की छाजन देकर कुछ दिन निवास हुआ, फिर फूस की कुटिया बनी, पर सम्प्रति विशालकाय सन्तमत -सत्संग-मंदिर, महर्षि -कुटीर एवं विभिन्न साधकों द्वारा निर्मित कई साधना -कुटीर गंगा की धारा जैसे प्रज्वलित हो रहे हैं। आज यहाँ महर्षिजी-रचित सभी पुस्तकों का प्रकाशन-कार्य भी शान्ति-सन्देश-प्रेस द्वारा सम्पन्न हो रहा है। महर्षिजी के वर्तमान निवास से तो यह भूमि मानो सन्त-साधना से प्रक्षालित हो अपनी पवित्रता की किरणों को चतुर्दिक बिखेर रही है। इसलिए यह स्थान दर्शनीय भी हो गया है।
10. संतों की साधना का महत्व
सम्प्रति यद्यपि आपको योगांगों को पूर्ण कर योगबल-प्राप्त्यर्थ
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प्रसन्न मुद्रा में गुरुदेव |
योगाभ्यास करना नहीं है, फिर भी आपके अनुसरण-द्वारा लोकपथ कल्याणमय हो, इसी दृष्टि को अपनाए रखकर आज भी आप इन साधनाओं को सुगम्भीर एवं सुनिर्मल निष्ठा के साथ अविरल, अविश्रांत रूप से कर रहे हैं । आपने इन साधनाओं द्वारा केवल अपने ही मोक्ष का पथ प्रशस्त किया हो, सो नही अपितु मनुष्य-जाति के लिए चिर-अवरूद्ध मोक्ष - मार्ग खोल दिया है। इसलिए तो आपका उद्घोष है - 'जितने मनुष- तनधारि हैं, प्रभु भक्ति कर सकते सभी।' तथा 'मानस जप, मानस-ध्यान, दृष्टि-साधन और सुरत-शब्दयोग-द्वारा सर्वेश्वर की भक्ति करके अन्धकार, प्रकाश और शब्द के प्राकृतिक तीनों परदों से पार जाना और सर्वेश्वर से एकता का ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पा लेने का मनुष्य-मात्र अधिकारी है।' ( महर्षि मेंहां -पदावली)
11. आत्म कल्याण के अधिकारी कौन है?
आपके प्रचार का क्षेत्र विशेषकर देहात रहा है। आपने समाज के असंख्य पीड़ित, पद-दलित, शोषित एवं
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भक्तों के साथ गुरुदेव |
अशिक्षित मनुष्यों में अपनी साधना का प्रचार किया है। एक दिन आपके मुख से दयार्द्र वाणी उच्छ्वसित हो उठी थी- '
जिसको कोई पूछनेवाला नहीं है अर्थात् जिसको कोई आदर की दृष्टि से नहीं देखता है, ऐसे आदमी जब दीक्षा पाने के लिए मेरे पास आते हैं, तो उन्हें दीक्षा देने में मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है। रेलवे स्टेशन से चालीस-चालीस मील दूर देहात में, जहाँ यातायात का साधन मात्र बैलगाड़ी ही है, आप अस्सी वर्ष की वृद्धावस्था में भी गर्मी, बरसात और शीत ऋत्-जन्य कष्टों को निर्विकार भाव की पुलकित प्रसन्नता में सहन करते हुए जाते हैं और जनता में अपनी साधना-विधि का प्रचार कर उन्हें चरित्र-निर्माण की शिक्षा देते हैं। गो० तुलसीदासजी ने ठीक ही कहा है- 'सन्त सहहिं दुख परहित लागी।' आप उनकी इस वाणी को चरितार्थ कर रहे हैं। कबीर, नानक, दादू और पलट् आदि सन्तों की भाँति आप भी अपनी साधना के आलोक में अज्ञानान्धकार में भटकते हुए असंख्य मानवों के हृदय में आध्यात्मिक चेतना की ज्योति जगाकर उनका मार्ग-प्रदर्शन करते हैं। यही कारण है कि आज आपसे वैदिक धर्मावलम्बी के लिए तो कहना ही क्या, बौद्ध , इस्लाम और ईसाई भी दीक्षित होकर अपने को कृतकृत्य मानते हैं।
12. संतमत के प्रचार प्रसार का आधार क्या है?
आपके प्रचार का आधार है - वेद, उपनिषदादि आर्ष ग्रन्थ और सन्तों की वाणियाँ। सन्तों की वाणियों में साधनाओं द्वारा जिस
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संतमत मेडिटेशन इमेज |
सत्य का साक्षात् करने का वर्णन किया गया है, उसका अभ्यास करके ही आपने उसका साक्षात्कार किया है। आप मधुकरी वृत्ति नहीं करके अपने गुरु महाराज्ी की आज्ञानुसार कृषि-कर्म-द्वारा अपना जीवन-निववाह करते हैं और अपने शिष्यों को भी स्वावलम्बी जीवन व्यतीत करने की शिक्षा देते हैं। सर्वसन्तानुमोदित आपकी साधना-विछधि का क्रम है- मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टियोग तथा नादानुसन्थान अथात् सुरत-शब्द-योग, तदनुसार इन विषयों के साथ-साथ आप झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार से विरत रहने का प्रबल आदेश देते हैं। आपका कथन है कि सदाचार की नींव पर ही साधना-भवन का सुनिर्माण किया जा सकता है। अतः साधकों के चरित्र-निर्माण के लिए आप सतत सचेष्ट रहते हैं।
13. सद्गुरु महर्षि मेँहीँ रचित सद्ग्रन्थ
मानव के उभय लोक-कल्याणर्थ आपने सत्संग, अध्ययन, मनन, निदिध्यासन और अनुभवाधार पर कई पुस्तकें लिखीं और कुछ पुस्तकों की टीका करके जन-साधारण के लिए
उन्हें बोधगम्य बनाया है। इसके नाम हैं-(१) सत्संग- योग (चारो भाग), (२) सन्तवाणी सटीक, ( ३ ) रामचरितमानस-सार सटीक, (४) वेद-दर्शन-योग, (५) श्रीगीता- योग-प्रकाश, (६) सत्संग-सुधा, प्रथम एवं द्वितीय भाग, ( ७) महर्षि मेंहीं -पदावली, (८) मोक्ष- दर्शन, (९ ) भावार्थ सहित घटरामायण - पदावली, (१०) विनय -पत्रिका-सार सटीक, (११) ईश्वर का स्वरूप और उसकी प्राप्ति, (१२) ज्ञान-योग- युक्त ईश्वर-भक्ति।
14. सद्गुरु महर्षि मेँहीँ रचित सद्ग्रन्थो का संक्षिप्त विवरण
(१) सत्संग-योग- इसके प्रथम भाग में वेदों, उपनिषदों, श्रीमद्भगवदगीता,
श्रीमद्भागवत, अध्यात्म रामायण, शिवसंहिता, महाभारत, ज्ञानसंकलिनी तंत्र, दुर्गा सप्तशती इत्यादि के मोक्ष-सम्बन्ध सदुपदेशों का संग्रह है। दूसरे भाग में भगवान महावीर, भगवान बुद्ध, भगवान शंकराचार्य, महायोगी गोरखनाथजी महाराज, सन्त कबीर साहब, गुरु नानक साहब, गो० तुलसीदासजी, भक्तवर सूर्दासजी, सन्त तुलसी साहब ( हाथरस-निवासी), स्वामी विवेकानन्द, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, राधास्वामी साहब, बाबा देवी साहब प्रभृति पचास सन्त-महात्माओं और भक्तों के सदुपदेश हैं। तीसरे भाग में वर्तमान विद्वानों और महात्माओं के उत्तमोत्तम वचन हैं, जो 'कल्याण' तथा अन्य पत्रों से उद्धृत हैं। सत्संग, श्रवण, मनन, अध्ययन एवं समाधि- साधना-द्वारा महर्षिजी की अनुभूतियों का वर्णन चौथे भाग में है।
(२) सन्तवाणी सटीक संतों की वाणी उनकी अनुभूतियों और अनुभवों का अगम और अपार सिंधु है। इस पुस्तक में महर्षिजी ने उसे सर्वसाधारण की समझ में आने योग्य बनाने का यथायोग्य प्रयास किया है।
(३) रामचरितमानस-सार-सटीक -इस ग्रन्थ में महर्षिजी ने रामचरितमानस के उपदेशात्मक, साधनात्मक और अनुभव-प्रकाशक दोहों, चौपाइयों, छन्दों एवं सोरठों का चयन कर उनकी टीका और व्याख्या की है। रामचरितमानस का कथा-क्रम भी अभंग रूप से है। साथ ही सर्वसाधारण का यह भ्रामक विचार कि 'गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज सगुण साकार भगवान की ही भक्ति करते थे और दाशरथि राम को ही सर्वोपरि समझते थे।' इसके अध्ययन से दूरीभूत होकर सरलतम रूप से समझ में आ जाता है कि गोस्वामी तुलसीदासजी भगवान के सगुण-निर्गुण और इन दोनों रूपों के परे शुद्ध आत्मस्वरूप के भी ज्ञाता और ध्याता थे।
(४) वेद-दर्शन-योग- चारो वेदों से १०० मंत्रों का सटीक संग्रह करके उनके प्रायः प्रत्येक मन्त्र पर महर्षिजी द्वारा टिप्पणी। इसके लिए आर्य - समाज के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान पण्डित बिहारी लालजी शास्त्री ने अपनी 'आर्य-मित्र' साप्ताहिक पन्रिका में लिखा-'महात्मा मैंहीं परमहंसजी ने अपनी पुस्तक में सन्तों की अनुभूति और वेद का समन्वय करके कालान्तर से बिछ्ूडे सन्तमत और वैदिक धर्म को एक कर दिया है।
(५) श्रीगीता-योग-प्रकाश (प्रस्तुत ग्रंथ)-गीता में वर्णित *इसके टीकाकार हैं -पंडित जयदेव शर्मा, विद्यालंकार, मीमांसातीर्थ (आर्य साहित्य मंडल लिमिटेड, अजमेर )। भक्ति, ज्ञान और योगादि का सन्त-साधना से समन्वय।
(६) सत्संग-सुधा (महर्षि मेंहीं-वचनामृत ), प्रथम एवं द्वितीय भाग- इस पुस्तक में महर्षिजी के विभिन्न स्थानों में दिए गए २६ प्रवचनों का संग्रह है। इसमें ईश्वर-स्वरूप-निर्णय, भक्ति, योग, बन्ध-मोक्ष, सत्संग, सदाचार तथा सन्त-साधना-पद्धति पर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है।
(७) महर्षि मेंहीं पदावली - महर्षिजी द्वारा रचित सभी पदों का एक साथ संग्रह है।
(८) मोक्ष-दर्शन- परमात्मा, ब्रह्म, ईश्वर, जीव, प्रकृति, माया, बन्ध-मोक्षधर्म वा सन्तमत की उपयोगिता, परमात्म-भक्ति और अन्तर-साधना का सारांश साफ-साफ समझ में आ जाय - इस पुस्तक के लिखने में महर्षिजी का यही उद्देश्य है।
(९) घटरामायण-पदावली- हाथरस-निवासी तुलसी साहबकृत ग्रन्थ के कुछ पद्यों का चयन करके उनके अर्थ और उनकी व्याख्या कर उनके ही आधार पर महषिजी ने बताया है। कि परम प्रभु सर्वेश्वर को अपने घट में कहाँ और कैसे पाया जा सकता है।
(१०) विनय- पत्रिका- सार- सटीक-इस ग्रन्थ में गोस्वामी तुलसीदास कृत विनय-पत्रिका से कतिपय चुने हुए पद्य, उनके अर्थ, उनकी व्याख्या और तत्सम्बन्धी महर्षिजी के विचार भी हैं।
(११) ईश्वर- स्वरूप और उसकी प्राप्ति - ईश्वर स्वरूपतः क्या है और उसकी प्राप्ति कैसे होती है, इसका साररूप में वर्णन।
(१२) ज्ञान- योग- युक्त ईश्वर -भक्ति- इस छोटी-सी पुस्तिका में महर्षिजी ने मोक्ष - साधन की पूर्णता के लिए ज्ञान, योग और भक्ति-इन तीनों की एक साथ अनिवार्य आवश्यकता बतलायी है।
15. संतमत सत्संग मंदिर का महत्व एवं निर्माण
सत्संग की सुचारु एवं सुव्यवस्थित ढंग से दिनानुदिन अभिवृद्धि हो, इसके लिए सिकलीगढ़ धरहरा,
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महर्षि मेँहीँ आश्रम, |
बनमनखी, पुरैनियाँ (बिहार) में श्रीसंतमत-सत्संग मंदिर का सर्वप्रथम निर्माण किया गया। तदुपरान्त आज विभिन्न स्थानों में सैकड़ों सत्संग- मन्दरों के निर्माण हो चुके हैं और नव-निर्माण होते ही जा रहे हैं। इनके द्वारा सभी जातियों एवं धर्मों के असंख्य नर -नारी स्वावलम्बी जीवन-यापन करने, सुचरित्र-निर्माण करने तथा परमात्म-भजन कर उभय लोक बनाने की शिक्षा पाते हैं। जैसे दूध में धृत और माता के उपदेश में बालक का हित भरा होता है, वैसे ही आपके ज्ञानोपदेश में मानव का कितना कल्याण निहित है, कहा नहीं जा सकता।
16. महर्षि मेँहीँ वाणी का महत्व
आपके विचार, प्रचार और सिद्धांत से किसी भी धर्म, मजहब और समप्रदाय के सार सिद्धान्त का खण्डन नहीं होता, वरन् आपका दृढ़ सिद्धान्त है कि सभी सन्तों का एक ही मत है। आपके पूर्व से ही जैसे सन्त दादू दयालजी आपके वाक्यों का समर्थन करते रहे हों- 'जे पहुँचे ते कहि गये, तिनकी एकै बाति। सबै सयाने एक मत, तिनकी एके जाति॥" और यदि आपके शब्दों में कहना चाहेंगे, तो हम कह सकेंगे- 'भिन्न-भिन्न काल तथा देशों में सन्तों के प्रगट होने के कारण तथा इनके भिन्न-भिन्न नामों पर इनके अनुयायियों द्वारा संतमत के भिन्न-भिन्न नामकरण होने के कारण सन्तों के मत में पृथक्व ज्ञात होता है, परन्तु यदि मोटी और बाहरी बातों को तथा पंथाई भावों को हटाकर विचारा जाय और सन्तों के मूल एवं सार विचारों को ग्रहण किया जाय, तो यही सिद्ध होगा कि सब सन्तों का एक ही मत है।
17. संतमत सत्संग का प्रचार-प्रसार एवं अधिवेशन
आपके तत्त्वावधान में प्रति वर्ष अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग का वार्षिक महाधिवेशन विभिन्न प्रान्तों के विभिन्न जिलों में हुआ करता है। इसमें जैन, बौद्ध, सिक्ख, ईसाई, इस्लाम और वैदिक धर्मावलम्बियों एवं सरभी जातियों -सम्प्रदायों के सहस्तरों नर नारी एकत्रित हो आपके वचनामृत से लाभान्वित होते हैं। इसके अतिरिक्त आपके द्वारा प्रचालित अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग का विशेषाधिवेशन, मासिकाधिवेशन, साप्ताहिक, दैनिक, दिन में दो और तीन बार भी सत्संग- प्रचार अव्याहत रूप से हो रहा है। इसके अतिरिक्त दैनिक त्रैकालिक ध्यान -साध ना का वैर्यक्तिक क्रम तो निर्बाध रूप से चलता ही है। फिर भी साधकों की ध्यान-साधना में विशेष प्रगति लाने के लिए आप अपने तत्तवावधान में सप्ताह, अद्धमास और मास-ध्यान-साधना भी सामूहिक रूप से करवाते हैं।
18. सद्गुरु महर्षि मेँहीँ का देश प्रेम
मात्र अध्यात्म-ज्ञान-द्वारा ही अपने देश-सेवा में हाथ बैटाया हो, ऐसा नहीं। राजनैतिक क्षेत्र में भी, प्रकट और अप्रकट रूप से आपने कम सेवा नहीं की। अपने देश को स्वतनत्र बनाने में आपने जो योगदान दिया, वह अवर्णनीय है। हाल में ही जब चीनियों ने अपने देश (भारत) पर आक्रमण किया, तो आपने बिहार राज्य सुरक्षा-कोष में एकमुस्त दान दिया और आज भी आप प्रतिमास नियमित रूप से उक्त सुरक्षा-कोष में दान देते चले आ रहे हैं।
19. देश रक्षार्थ आत्मबलिदान की तत्परता
इतना ही नहीं, इस अस्सी वर्ष की जर्जर वृद्वावस्था में भी आपने आत्म-विश्वास की ओजस्वी भाषा में जो अपनी उद्घोषवाणी विश्व को सुनायी है, उससे प्रत्यक्ष है कि आपमें अपने स्वतन्त्र देश का कितना गौरव और कितनी देश-भक्ति है। वह अभय वाणी है- 'आज या कल कभी-न-कभी इस शरीर का नाश हो जाना धरव निश्चित है। किन्तु लोक- कल्याणकारी कार्य में इस शरीर का बलि हो जाना अति श्रेयस्कर है।
मैं बुढ़ा हो गया हूँ, हाथ-पैर काँपते हैं, फिर भी देश-रक्षा के निमित्त सरकार मुझे युद्ध में जाने के लिए कहे, तो मैं सहर्ष जाने के लिए तैयार हूँ । देश-रक्षार्थ युद्ध के लिए अपने देश के किसी भी व्यक्ति को मुँह नहीं
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महर्षि संतसेवी गुरु सेवा करते हुए |
मोड़ना चाहिए। यह अनिवार्य हिंसा है, जैसे कृषकों के लिए कृषि-कर्म की हिंसा। नवजवानों को साहसी, निरालस्य और पुरुषार्थी होना चाहिए। और देशवासियों को तन, मन और धन से सतत सरकार की सहायता के लिए तत्पर, सावधान और क्रियाशील रहना चाहिए, जिससे देश का यह संकट शीघ्र टल जाए।' (शांति-सन्देश, मासिक पत्रिका १९९२ ई० के अक्टूबर अंक। )
- 'संतसेवी'
महर्षि मेॅंहीं आश्रम
कुप्पाधाट, भागलपुर-३
(बिहार ) भारत- 812003
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'श्रीगीता-योग-प्रकाश' में प्रकाशित उपरोक्त लेख इस निम्न प्रकार से प्रकाशित है-
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महर्षि जीवनी पृष्ठ 1 |
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महर्षि जीवनी पृष्ठ 2 |
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महर्षि जीवनी पृष्ठ3 |
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महर्षि जीवनी पृष्ठ4 |
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महर्षि जीवनी पृष्ठ5 |
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महर्षि जीवनी पृष्ठ6 |
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महर्षि जीवनी पृष्ठ7 |
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महर्षि जीवनी पृष्ठ8 |
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महर्षि जीवनी पृष्ठ9 |
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महर्षि जीवनी पृष्ठ10 |
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महर्षि जीवनी पृष्ठ11 |
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महर्षि जीवनी पृष्ठ12 |
प्रभु प्रेमियों ! सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के सभी शास्त्र पैठणीय, माननीय एवं संग्रहण करने योग्य है. अतः इनकी पुस्तकों का एक सेट या एक-एक प्रति का आर्डर अवश्य ही करें. इससे आपको मोक्ष पर्यंत चलने वाले ध्यान अभ्यास में सहयोग करने का भी पूण्य प्राप्त होता है और अपका ज्ञान स्कोर भी समृद्ध होता है. अगर आपको इस तरह का जानकारी पसंद है तो इस वेबसाइट का सदस्य बने और अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें जिससे उनको भी लाभ हो . निम्न वीडियो में ऊपर लिखित बातें बताई गई हैं.--
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